अखबार



अखबार में लिपटी थी, कुछ दिन की बासी रोटी,

अखबार कह रहा था, कम हो गयी गरीबी.
गुलाब सी फितरत है, काँटों से घिर गया हूँ,
जो काँटा चुभ रहा है, वो है मेरा करीबी.
ताना बाना लेकर, जो पैरहन* बुनता है,
उसका बदन है नंगा, ये कैसी बदनसीबी.
मैं सारे ज़माने के रंगों से होली खेलूँ
रंग अपना भूल जाऊँ, ऐसा न हो कभी भी.
सब गुजर रहे हैं, लगता है कि वो गुजरा,
है वक्त नाम जिसका, उसकी यही है खूबी.

*वस्त्र.
कार्टून बामुलाहिजा से साभार.

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