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क्या?

बिक नहीं सकता जो, उस की क्या कीमत भाव लगे जिसका,फिर उस का मोल क्या। जूं भी न रेंगेगी          चीखों के बावजूद, बहरों के मुहल्ले में,मुनादी का ढ़ोल क्या। दिमाग़ कैसे  मापे, गहराईयाँ  दिल  की ताक़त के तराज़ू में, चाहत का तोल क्या। जज़्बात कहाँ समझें, सियासत के मसाइल क्या फ़र्क जो तू बोले, अगर न बोल क्या। रंग भी  न बदले  है, उस बेशर्म का चेहरा जो साजिशें छुपी रहें खुल जाए पोल क्या।

ग़ज़ल।

इश्क़ को जिसकी जुस्तजू हर दम उस मुलाक़ात का बहाना हूँ। कहाँ लायक हूँ मैं ज़माने के रस्म-ए-दुनिया को बस निभाना हूँ, मैं अदीबों के साथ रहता हूँ सुखनसाज़ी से आशिकाना हूँ। अदीब=लेखक,सुख़नसाजी=लेखन। नदी हूँ क्या चुनूँ मंजिल अपनी समुन्दर की तरफ रवाना हूँ। मैं भी आदम के सभी बच्चों सा ज़रा सच हूँ ज़रा फ़साना हूँ। ऐसी हसरत से मुझे देखते हो क्या मैं गुजरा हुआ ज़माना हूँ। करो न मुझसे होश की उम्मीद निगह-ए-शोख का निशाना हूँ। लगा सब की तरह उधेड़ बुन में मैं भी जीवन का ताना बाना हूँ। तेरे होंठों पर कभी आऊँगा अभी अनजान एक तराना हूँ।