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आईना है ये कलाम.

कागज़ी संवेदना, है कागज़ी सब इंतज़ाम, कागज़ी नारे तुम्हारे, हैं कागज़ी वादे तमाम. है नहीं जो, बाँटते हो, आप वो लोगों के बीच, जो है वो, मिलबाँट कर खाएगा हमारा निजाम. मत के मतवालों ने कैसा कायदा ये कर दिया, नौकरों का घर पे कब्ज़ा और मालिक लामुकाम. हम तो डर जाते सिपाही दूर से ही देख कर, और अपना वो सिपाही चोर को करता सलाम. और कब तक ज़ब्त अपना आजमाते जाओगे? आज के हालात हैं अपनी ही चुप्पी का इनाम. हम भी बगलें झाँकते हैं शक्ल इसमें देखकर, आज की तारीख का एक आईना है ये कलाम. लामुकाम= बेघर. ज़ब्त=धैर्य. कलाम=कविता.

ग़ज़ल

                         ग़ज़ल हो गयी है पीर, पर्वत भी पिघलने लग गया, नींद में खलल पड़ा, इंसान पर क्या जग गया. तूने क्या बरबाद पूरा, घर पुराना कर लिया ? तू जो निकला ढूँढने, तारों में फ़िर इक घर नया. आज की इस ज़िंदगी का दायरा भी है अजीब, घर से निकला रिज़्क पर, रोटी कमाई घर गया. होने का जिसको गुमाँ था, लोग बोले उसके बाद, चार दिन वो भी जिया, सबकी तरह फ़िर मर गया. कनखियों से देखना वो, आपका मेरी तरफ़. यूँ लगा जैसे पुराना ज़ख्म कोई भर गया.

सतह पर.

सतह पर. तुम, जो दिखते भी नहीं हो, हावी रहते हो मुझपर. मुझपर, जो दिखता है. कितनी आसानी से बदल जाते हो तुम. दिल बन कर, करवा लेते हो वो, जो अतार्किक है. और कभी दिमाग बन कर, करवाते हो वह सब, जो तार्किक तो है, परन्तु निंदनीय. और सजा भोगता हूँ मैं. मैं, जो दिखता है, सतह पर.