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अप्रैल, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ऐसे ही.

बीच दोनों के एक इश्क की नदी है जरूर, यूँ समंदर को हिमालय नहीं पिघलते हैं. आन एक ऐसा खिलौना है,जिसकी खातिर, बुजुर्गवार भी बच्च्चों की ढब मचलते हैं. मेरे मंदिर के दिये,और तेरी मस्ज़िद के चिराग, बहुत आँधी चली पर साथ साथ जलते हैं. तुम अपनी रौ बहे तो हम भी अपनी रौ बहके, सम्हलते आप वहाँ हम यहाँ सम्हलते हैं. खुदा ही जाने के ये दोस्त कहाँ पहुँचेंगे, मंजिलें दो हैं, मगर साथ साथ चलते हैं. मेरे पैरों में है दस्तूर की ज़ंजीर मगर, मेरे अरमान इक उड़ान को मचलते हैं.