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ग़ज़ल

                         ग़ज़ल हो गयी है पीर, पर्वत भी पिघलने लग गया, नींद में खलल पड़ा, इंसान पर क्या जग गया. तूने क्या बरबाद पूरा, घर पुराना कर लिया ? तू जो निकला ढूँढने, तारों में फ़िर इक घर नया. आज की इस ज़िंदगी का दायरा भी है अजीब, घर से निकला रिज़्क पर, रोटी कमाई घर गया. होने का जिसको गुमाँ था, लोग बोले उसके बाद, चार दिन वो भी जिया, सबकी तरह फ़िर मर गया. कनखियों से देखना वो, आपका मेरी तरफ़. यूँ लगा जैसे पुराना ज़ख्म कोई भर गया.